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सु॒षा॒र॒थिरश्वा॑निव॒ यन्म॑नु॒ष्या᳖न्ने॑नी॒यते॒ऽभीशु॑भिर्वा॒जिन॑ऽइव। हृ॒त्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं जवि॑ष्ठं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒षा॒र॒थिः। सु॒सा॒र॒थिरिति॑ सुऽसार॒थिः। अश्वा॑नि॒वेत्यश्वा॑न्ऽइव। यत्। म॒नु॒ष्या᳖न्। ने॒नी॒यते॑। अ॒भीशु॑भि॒रित्य॒भीशु॑ऽभिः। वा॒जिन॑ऽइ॒वेति॑ वा॒जिनः॑ऽइव ॥ हृ॒त्प्रति॑ष्ठम्। हृ॒त्प्रतिस्थ॒मिति॑ हृ॒त्ऽप्रति॑स्थम्। यत्। अ॒जि॒रम्। जवि॑ष्ठम्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु॒ ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो मन (सुषारथिः) जैसे सुन्दर चतुर सारथि गाड़ीवान् (अश्वानिव) लगाम से घोड़ों को सब ओर से चलाता है, वैसे (मनुष्यान्) मनुष्यादि प्राणियों को (नेनीयते) शीघ्र-शीघ्र इधर-उधर घुमाता है और (अभीशुभिः) जैसे रस्सियों से (वाजिन इव) वेगवाले घोड़ों को सारथि वश में करता, वैसे नियम में रखता (यत्) जो (हृत्प्रतिष्ठम्) हृदय में स्थित (अजिरम्) विषयादि में प्रेरक वा वृद्धादि अवस्थारहित और (जविष्ठम्) अत्यन्त वेगवान् है, (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मन (शिवसङ्कल्पम्) मङ्गलमय नियम में इष्ट (अस्तु) होवे ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य जिस पदार्थ में आसक्त है, वहीं बल से सारथि घोड़ों को जैसे वैसे प्राणियों को ले जाता और लगाम से सारथि घोड़ों को जैसे वैसे वश में रखता, सब मूर्खजन जिसके अनुकूल वर्त्तते और विद्वान् अपने वश में करते हैं, जो शुद्ध हुआ सुखकारी और अशुद्ध हुआ दुःखदायी, जो जीता हुआ सिद्धि को और न जीता हुआ असिद्धि को देता है, वह मन मनुष्यों को अपने वश में रखना चाहिये ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सुषारथिः) शोभनश्चासौ सारथिर्यानचालयिता (अश्वानिव) यथाश्वान् कशया सर्वतश्चालयति तथा (यत्) (मनुष्यान्) मनुष्यग्रहणमुभयलक्षकं प्राणिमात्रस्य (नेनीयते) भृशमितस्ततो नयति गमयति (अभीशुभिः) रश्मिभिः। अभीशव इति रश्मिनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.५) (वाजिन इव) सुशिक्षितानश्वानिव (हृत्प्रतिष्ठम्) हृदि प्रतिष्ठा स्थितिर्यस्य तत् (यत्) (अजिरम्) विषयादिषु प्रक्षेपकं जराद्यवस्थारहितं वा (जविष्ठम्) अतिशयेन वेगवत्तरम् (तत्) (मे) मम (मनः) (शिवसङ्कल्पम्) (अस्तु) भवति ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यत् सुषारथिरश्वानिव मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव नियच्छति च बलात् सारथिरश्वानिव प्राणिनो नयति, यद्धृत्प्रतिष्ठमजिरं जविष्ठमस्ति, तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ। यत्रासक्तं तत्रैव प्रग्रहैः सारथिः तुरङ्गानिव वशे स्थापयति, सर्वेऽविद्वांसो यदनुवर्त्तन्ते विद्वांसश्च यत्स्ववशं कुर्वन्ति, यच्छुद्धं सत्सुखकार्य्यशुद्धं सद् दुःखकारि यज्जितं सिद्धिं यदजितमसिद्धिं प्रयच्छति, तन्मनो मनुष्यैः स्ववशं सदा रक्षणीयम् ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसा चतुर सारथी घोड्यांचा लगाम खेचून त्यांना योग्य तऱ्हेने चालवून वेगवान घोड्यांना आपल्या ताब्यत ठेवतो.
टिप्पणी: तसे मूर्ख लोक ज्या मनाच्या तंत्राने वागतात व विद्वान लोक त्या मनाला ताब्यत ठेवतात. असे मन पवित्र असेल तर सुखदायक व अपवित्र असेल तर दुःखदायक ठरते. त्यामुळे जिंकल्यास अजिंक्य नसता हार अशा या चिरतरुण मनाला (विषयाकडे न वळविता) माणसांनी आपल्या ताब्यात ठेवले पाहिजे.